अब तक वैज्ञानिकों ने चार प्रकार के कैंसरों की खोज की है जोकि शरीर के भिन्न अंगों में होते हैं। कैंसर वह कोशिका है जो लगातार बढ्ती रहती है और आस-पास की स्वस्थ कोशिकाओं से अपना पोषण प्राप्त करती रहती है। इस कैंसर कोशिका का शरीर के लिए कोई उपयोग नहीं है। यह कैंसर कोशिका पूरे शरीर पर आक्रमण कर व्यक्ति को मौत के मुंह तक ले जाती है। इसी प्रकार का एक कैंसर मन में पाया जाता है और वैज्ञानिक मान भी चुके हैं कि शरीर में जो कैंसर हुआ है उसका 80 प्रतिशत कारण मन से है और सत्य भी यही है। कैसा भी कैंसर हो शुरूआत मन से ही होती है। तन का कैंसर हम सभी को दिखाई देता है पर मन का कैंसर शायद खुद को भी दिखाई नहीं देता। जब मन का कैंसर तन में प्रकट होने लगता है तब हमें कैंसर दिखाई देता है।
यह मन का कैंसर क्या है?
मन को किसी गलत विभिप्तताओं (क्रोध, घ्रणा, ईर्ष्या, लालच) को अधिक समय तक खींचा जाता है तो मन में अहंकार पैदा होने लगता है। मन में पहले बडे अहंकार आने लगते हैं जोकि स्थाई होते हैं। फिर धीरे-धीरे सूक्ष्म अहंकार आने लगते हैं जोकि हमें दिखाई नहीं देते और पता भी नहीं चलता। ये सूक्ष्म अहंकार हमारे शरीर में चल रही हार्मोनिक क्रियाओं पर अपना प्रभाव छोडते हैं और शरीर की व्यवस्थाओं में विखराव पैदा करना शुरू कर देते हैं। इस विखराव के द्वारा शरीर की उपापचीय क्रियाऐं गडबडाने लगती हैं और धीरे-धीरे यह मन का सूक्ष्म कैंसर शरीर के रूप में अपनी प्रकटता देता है ।
क्या मन इतना प्रभावशाली होता है कि वह शरीर पर प्रकट हो जाये?
शरीर पर जो भी प्रकटता है वह मन ही है। जैसा मन होता है वैसा ही चेहरा होगा, व्यवहार होगा, आवाज होगी सब कुछ मन का ही रूप है। मन का व्यवहार हमारे शरीर की सूक्ष्म से सूक्ष्म कोशिका पर भी अपना प्रभाव छोडता है। मन प्रभावशाली ही नहीं शक्तिशाली भी होता है जोकि किसी भी शारीरिक बीमारी से लडने की स्वंम क्षमता पैदा कर सकता है।
मन की शक्ति इतनी होती है कि वह मस्तिष्क को आज्ञा देकर किसी भी रोग के एंटीजन व एंटीबाडीज ड़्वैलप कराने की क्षमता विकसित करवा दे। मन का सम्पूर्ण मस्तिष्क पर एकाधिकार होता है। मन के व्यवहार से मस्तिष्क की सभी क्रियाऐं संचालित होती हैं और मस्तिष्क की कार्य प्रणाली शरीर के रूप में प्रकट होती है ।वैज्ञानिक मानते हैं कि कोई मानव के गुणसू्त्रों में करीब 3 अरब जीन के जोडे होते हैं जिनमें से करीब 1 लाख के आस-पास सक्रिय होकर मानव के कार्यों, गुणों की संरचना को नियंत्रित करते है। इन सभी जीनों के पास अपनी अपनी सूचनाऐं निहित होती हैं जिनमें उनके कार्य सम्मिलित होते हैं। इन सभी जीनों का निर्धारण न्यूरान्स (तंत्र कोशिकाओं) के माध्यम से मस्तिष्क के पास होता है।
मस्तिष्क यह तय करता है कि किस जीन को कौनसा कार्य करना है और कब करना है और यह सब एक नैसर्गिक प्रक्रिया के तहत चलता रहता है। जब इस नैसर्गिक प्रक्रिया को विक्षिप्त मन के माध्यम से छेडा जाता है तो यह प्रक्रिया गडबडाने लगती है और यह जीन अपना कार्य बदल कर अन्य कार्य में लग जाते हैं और शरीर बीमार हो जाता है।
मन की विक्षप्ति कैंसर रोग पैदा करती है|
मन की विक्षप्ति ही रोग पैदा करती हैं जैसे समझे—मन में जब लालच आता है कि मेरे पास अधिक होना चाहिए, वह धन हो, मकान हो या कोई वस्तु, जब लालच आता है तो उसके साथ-साथ क्रोध, घ्रणा व ईर्ष्या भी आ जाती है। कारण साफ है लालच तभी तो पैदा होगा जब हमारे पास कम होने की ईर्ष्या होगी, जब ईर्ष्या होगी तो घृणा भी होने लगेगी। इस घ्रणा को भरने के लिए मन अधिक की चाह करने लगता है कि और चाहिए – और चाहिए कितना भी मिल जायेगा, बस चाहिये ही चाहिए। यही स्वरूप कैंसर कोशिका का होता है। वह भी अनियन्त्रित रूप से बढने लगती है और गांठ का रूप ले लेती है। यदि कैंसर की गांठ को पूरी तरह काट दिया तो ठीक, नहीं तो उसकी एक कोशिका फिर गांठ बन जाती है। यही लालच का स्वरूप है लालच को जड मूल से नष्ट कर दिया तो ठीक थोडा सा बचा रह गया तो फिर वह धीरे-धीरे वही रूप ले लेता है। लालच बढता हुआ आसक्ति व अहंकार में परिवर्तित होता है जोकि मन के कैंसर का विकराल रूप है। यदि यह बढ़ता रहे तो शरीर में अपना बाह्य प्रक्षेपण देता है।
क्या इस रोग का उपचार है?
जब रोग है तो इसका उपचार भी है। बस समझ आ जाये कि कहीं कैंसर की शुरूआत मन से तो नहीं हुई। यदि ना भी समझ में आये तो उपचार तो मन से ही शुरू होगा। तन का उपचार मात्र 20 प्रतिशत प्रभावकारी है 80 प्रतिशत मन का ही उपचार प्रभावकारी है। कैंसर की स्थिति में आपका मनोबल ऊंचा, मन साफ, स्वच्छ, निर्मल है तो मन की क्रियाऐं नैसर्गिक होने लगती हैं आहार प्राकृतिक होने लगता है व्यवहार में आसक्ति का व्यवहार कम होने लगता है । मौत के प्रति जो भय था वह कम होने लगता है और शरीर स्वत: ही धीरे-धीरे एंटीबॉडीज ड्वैलप करने की क्षमता विकसित करने लगता है जिससे आप कैंसर से लड सकें। वैज्ञानिकों के पास कई प्रमाण हैं कि व्यक्ति को कैंसर होते हुये भी वह वर्षों तक स्वस्थ जीया। जब उसे मौत आई तब कैंसर उसका कारण नहीं था वह एक प्राकृतिक मौत थी।
प्रकृति के नियमों को समझना ही होगा। शरीर प्रत्येक रोगों से लडने की क्षमता रखता है और शरीर का एक नियम है कि जब शरीर रूग्ण होता है तो वह उनसे लडने व रोग को ठीक करने की औषधि स्वयं तैयार कर लेता है। शरीर रोगों से लडने की औषधि तभी तैयार कर पाता है जब मन स्वच्छ, साफ व सकारात्मक हो। नकारात्मक स्थिति में मन की उर्जा ज्यादा खर्च होती है और उस स्थिति में शरीर को स्वस्थ करने के लिए उर्जा नहीं बच पाती है।
साफ स्वच्छ व निर्मल मन के पास उर्जा का अथाह भंडार होता है जो कि शरीर की देखरेख करता रहता है।